“काबुलीवाला” रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी / Hindi Story Kabuliwala By Rabindranath Tagore
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Kabuliwala Rabindranath Tagore Ki Kahani / रविंद्रनाथ टैगोर की कहानी काबुलीवाला।
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Kabuliwala |
लेखक: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
रूपांतरण: मूल कथानक के अनुरूप विस्तारित वर्णन
प्रस्तावना:
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध का समय था। कलकत्ता (अब कोलकाता) जैसे महानगर में लोग अलग-अलग प्रांतों से आकर बसते थे। उस समय भारत में तरह-तरह की जातियाँ, धर्म और भाषाएँ साथ-साथ अस्तित्व में थीं। इन्हीं में से एक कहानी है एक पठान की – जो काबुल (अफ़ग़ानिस्तान) से भारत आया था – और एक छोटी बच्ची मिनी की।
कहानी की शुरुआत:
मैं एक लेखक हूँ। मेरे जीवन का अधिकांश समय किताबों और लेखन में व्यतीत होता है। मेरी एक छोटी बेटी है – मिनी, जो पाँच वर्ष की है। वह अत्यंत बातूनी है। उसके सवालों की कोई सीमा नहीं होती – “बाबूजी, आप स्कूल क्यों नहीं जाते?”, “बाबूजी, आप दाढ़ी क्यों रखते हैं?” — और न जाने कितने मासूम मगर विचित्र प्रश्न।
मिनी की माँ उससे अलग स्वभाव की है — शांत, थोड़ी संकोची और अत्यधिक चिंतित। वह मिनी को लेकर हर समय भयभीत रहती है – कहीं उसे ठंड न लग जाए, कोई अपरिचित उससे बात न कर ले, या कोई बाहरी व्यक्ति उसे न उठा ले। मैं अक्सर उसकी इस चिंता पर मुस्कराता।
काबुलीवाला का आगमन:
एक दिन मेरी खिड़की के बाहर से एक आवाज़ आई – “काबुलीवाला, काबुलीवाला!” मैंने देखा, एक लंबा-चौड़ा, पगड़ी पहने, गठीला पठान सड़क पर अपनी थैली लटकाए घूम रहा था। वह मेवे, किशमिश, सूखे फल और थोड़ी-बहुत सूती चीजें बेचता था। उसका नाम रहमत था। वह हर साल सर्दियों में काबुल से कलकत्ता आता और अपनी चीजें बेचकर पैसे इकट्ठे करता।
एक दिन रहमत हमारे घर आया। संयोग से उस समय मिनी भी वहीं थी। जैसे ही उसने रहमत को देखा, वह डरकर मेरी गोद में चढ़ गई और बोली, "बाबूजी, वह आदमी मुझे झोले में डाल ले जाएगा!" यह सुनकर रहमत ज़ोर से हँस पड़ा और बोला, "नन्ही बिटिया, मैं तुम्हें झोले में नहीं डालूँगा।"
इस पहली मुलाकात के बाद, मिनी का रहमत से डर धीरे-धीरे कम होने लगा। कुछ ही दिनों में दोनों में दोस्ती हो गई। रहमत जब भी आता, उसके लिए किशमिश, बादाम या चने लाता। वह मिनी से हँसी-मज़ाक करता, उसका हाल पूछता और अपने देश की कहानियाँ सुनाता।
मिनी और रहमत की दोस्ती:
रहमत और मिनी की दोस्ती निराली थी। मिनी अक्सर उससे पूछती, “तुम्हारी घर में भी छोटी बच्ची है?” तब रहमत की आँखें भर आतीं। वह कहता, “हां, वहाँ मेरी भी एक बेटी है — फ़ातिमा। वह भी तुम्हारी तरह बातूनी है।”
रहमत को जब भी समय मिलता, वह मिनी से मिलने आता। कभी-कभी वह उसका मज़ाक बनाकर कहता, “तुम्हारा ससुराल कहाँ है?”, तो मिनी शर्म से इधर-उधर देखने लगती।
मिनी की माँ को यह सब अजीब लगता। उसे एक परदेसी से इस तरह की नज़दीकी ठीक नहीं लगती। मगर मैं जानता था कि रहमत का मन पवित्र है — वह मिनी को अपनी बेटी मानता है।
घटना – संघर्ष का मोड़:
एक दिन अचानक पता चला कि रहमत को पुलिस पकड़कर ले गई है। वजह यह थी कि उसने एक ग्राहक से पैसे न मिलने पर उसे चाकू से घायल कर दिया था। यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। वह शांत, मुस्कराता हुआ रहमत — क्या वह ऐसा कर सकता है?
पुलिस ने उसे सात साल की सज़ा सुना दी। जाते समय वह मेरे पास आया और बोला, “बाबूजी, बिटिया से एक बार मिलवा दीजिए।”
मगर मिनी उस समय घर पर नहीं थी। रहमत बिना उससे मिले जेल चला गया।
सालों का अंतराल:
समय बीतता गया। सात साल जैसे हवा की तरह निकल गए। मिनी अब बड़ी हो गई थी। उसका विवाह तय हो चुका था। घर में उत्सव का माहौल था – हल्दी, संगीत, मंडप – हर कोना रंग-बिरंगा लग रहा था।
इसी बीच एक दिन रहमत फिर आ गया — वही पुराना थैला, वही बड़ी दाढ़ी, मगर अब चेहरा थका हुआ और उदास। जैसे ही मैंने उसे देखा, मैं चौंक गया। उसके हाथ में वही किशमिश और मेवे थे।
उसने पूछा, “बाबूजी, बिटिया कहाँ है? मैं उससे मिलने आया हूँ।”
मैंने उसे कुछ देर देखा और फिर कहा, “रहमत, अब वह बड़ी हो गई है। आज उसका विवाह है।”
वह चुप हो गया। उसकी आँखों में आँसू छलक आए। उसने जेब से एक कागज़ निकाला, जिस पर उसकी बेटी फ़ातिमा के हाथों की छाप थी। उसने उसे चूमा और बोला, “वह भी अब बड़ी हो गई होगी।”
भावनात्मक दृश्य:
मैंने देखा, रहमत की आँखों में पिता की वही ममता है — जो हर पिता की होती है, चाहे वह भारतीय हो या अफ़ग़ानी। वह मिनी में अपनी फ़ातिमा को देखता था। वह उसे हर साल कुछ देकर जैसे अपना प्यार भेजता था — अपने देश से दूर रहकर भी।
मेरे मन में भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। मैंने विवाह के खर्च से कुछ पैसे रहमत को दिए और कहा, “जाओ रहमत, अपनी बेटी के पास वापस जाओ। वह तुम्हारा इंतजार कर रही होगी।”
रहमत ने सिर झुकाया, शुक्रिया कहा और चला गया।
उपसंहार:
उस दिन मुझे यह अनुभव हुआ कि स्नेह, ममता और मानवता की कोई सीमा नहीं होती। एक अफ़ग़ानी पिता और एक बंगाली लेखक के बीच कोई जात-पात, धर्म या देश की दीवार नहीं थी। एक छोटी बच्ची ने दोनों को जोड़ दिया था — एक ऐसी डोर से जो केवल प्रेम से बुनी जाती है।
मुख्य पात्रों का विश्लेषण:
1. रहमत (काबुलीवाला)
* एक अफ़ग़ान व्यापारी, मगर उसके भीतर एक कोमल पिता छिपा है।
* अपनी बेटी को याद करता है, और मिनी में उसकी छवि पाता है।
2. मिनी
* बातूनी, चंचल, मासूम बच्ची।
* बचपन की सरलता से वह किसी की कठोरता भी पिघला सकती है।
3. कथावाचक (मिनी का पिता)
* एक संवेदनशील लेखक, जो रहमत की स्थिति को गहराई से समझता है।
* अंत में वह मानवीयता को महत्व देता है।
मुख्य संदेश और नैतिक शिक्षा:
* मानवता का धर्म सबसे बड़ा है।
* प्रेम और ममता की कोई सीमा नहीं होती।
* एक पिता का दिल दुनियाभर में एक जैसा होता है।
* बचपन की मासूमियत में असाधारण शक्ति होती है।
समाप्ति टिप्पणी:
“काबुलीवाला” केवल एक कहानी नहीं है, बल्कि यह उस मानवीय करुणा की कथा है जो सीमाओं से परे जाती है। यह एक अफ़ग़ानी व्यापारी और एक बंगाली बच्ची की दोस्ती से शुरू होती है और वहाँ पहुँचती है, जहाँ हम यह महसूस करते हैं कि इंसानियत किसी भी रिश्ते से ऊपर है।
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