"महा तीर्थ” मुंशी प्रेमचंद की कहानी / Maha Tirth By Munshi Premchand In Hindi
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Maha Tirth Munshi Premchand Ki Kahani / मुंशी प्रेमचंद की कहानी “ महा तीर्थ” का सारांश लिखिए ।
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Maha Tirth - Munshi Premchand |
"महा तीर्थ" मुंशी प्रेमचंद जी की एक प्रेरणादायक कहानी है, जो मानवता, सच्ची भक्ति और सामाजिक सेवा के महत्व पर प्रकाश डालती है।
कहानी का सारांश:
कहानी एक गरीब विधवा, गोमती, और उसकी बेटी, सुशीला, के इर्द-गिर्द घूमती है। गोमती का सपना है कि वह अपनी बेटी के विवाह से पहले किसी बड़े तीर्थ स्थान की यात्रा करे और पुण्य अर्जित करे। वह यह मानती है कि तीर्थ यात्रा से उसके सारे पाप धुल जाएंगे और उसे मोक्ष प्राप्त होगा।
हालांकि, उनकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब है कि तीर्थ यात्रा कर पाना असंभव सा लगता है। लेकिन गोमती अपने संकल्प में दृढ़ रहती है और एक दिन घर की छोटी-छोटी जमा पूंजी के साथ तीर्थ यात्रा पर निकल जाती है।
यात्रा के दौरान, वह एक ऐसी जगह पहुंचती है जहां भयंकर महामारी फैली होती है। वहां गरीब और बीमार लोगों की स्थिति दयनीय होती है। गोमती देखती है कि लोग अपने परिजनों तक को छोड़कर भाग रहे हैं। यह दृश्य देखकर उसका हृदय पिघल जाता है। वह तीर्थ यात्रा को स्थगित करके उन बीमार और बेसहारा लोगों की सेवा करने का निश्चय करती है।
कहानी के अंत में, गोमती को यह अहसास होता है कि सच्चा तीर्थ और पुण्य कमाने का मार्ग दूसरों की सेवा में ही है।
कहानी का संदेश:
"महा तीर्थ" यह संदेश देती है कि धार्मिक अनुष्ठानों और तीर्थ यात्राओं से अधिक महत्वपूर्ण है मानव सेवा। प्रेमचंद इस कहानी के माध्यम से यह बताते हैं कि असली तीर्थ वहीं है, जहां हम दूसरों के दुखों को कम कर सकें।
यह कहानी न केवल सामाजिक जागरूकता को बढ़ावा देती है, बल्कि यह भी सिखाती है कि सेवा और दया ही मानव जीवन का सबसे बड़ा धर्म है।
मुंशी प्रेमचंद की कहानी "महा तीर्थ" समाज और धर्म के गहरे मुद्दों को छूती है। इसमें उन्होंने दिखाया है कि सच्चा धर्म किसी तीर्थ पर जाने या धार्मिक क्रियाकलापों में लिप्त रहने में नहीं, बल्कि दूसरों की सेवा और मानवता के कल्याण में है। नीचे कहानी का विस्तारपूर्वक वर्णन संवाद सहित प्रस्तुत है:
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प्रारंभिक दृश्य: गोमती और सुशीला
कहानी एक छोटे से गांव से शुरू होती है। गोमती एक गरीब विधवा है, जो अपनी बेटी सुशीला के साथ रहती है। पति के निधन के बाद उसने कड़ी मेहनत से सुशीला का पालन-पोषण किया। उसकी एक ही इच्छा थी – अपनी बेटी की शादी अच्छे घर में हो और वह तीर्थ यात्रा पर जाकर मोक्ष प्राप्त करे।
गोमती: "सुशीला, बेटी, अब तेरी शादी के बाद मैं अपने जीवन का सबसे बड़ा काम करूंगी। मैं तीर्थ यात्रा पर जाऊंगी।"
सुशीला: "मां, इस घर की हालत तो देखो। पैसे कहां से लाओगी? और फिर, तुम्हारे बिना मेरा क्या होगा?"
गोमती: "बेटी, भगवान सब देखता है। मेरी इच्छा है कि मरने से पहले गंगा स्नान करूं। पाप धोने का यही एक तरीका है।"
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यात्रा की तैयारी
गोमती ने अपनी छोटी-सी जमा पूंजी को संभालकर रखा था। उसने सालों से अपने खर्चे में कटौती की थी ताकि तीर्थ यात्रा के लिए पैसे जुटा सके। एक दिन उसने अपनी इच्छा सुशीला से साझा की।
सुशीला: "मां, इन पैसों का इस्तेमाल घर सुधारने या मेरी शादी के लिए क्यों नहीं करतीं?"
गोमती: "बेटी, तेरा विवाह मेरी प्राथमिकता है, लेकिन मोक्ष की प्राप्ति के लिए तीर्थ करना जरूरी है।"
सुशीला मां के संकल्प को देखकर चुप हो गई। गोमती ने अपना सामान बांधा और गांव के लोगों से विदा लेकर तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़ी।
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यात्रा के दौरान: महामारी का दृश्य
यात्रा के मार्ग में, गोमती एक छोटे से गांव में पहुंचती है। वहां उसने देखा कि महामारी ने भयानक रूप ले लिया था। लोग अपने बीमार परिजनों को छोड़कर भाग रहे थे। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था।
एक ग्रामीण: "माई, यहां मत रुकना। महामारी फैली हुई है। लोग मर रहे हैं।"
गोमती: "पर तुम लोग इन बीमारों को अकेला क्यों छोड़ रहे हो? क्या इनकी सेवा करना हमारा कर्तव्य नहीं है?"
ग्रामीण: "हम अपनी जान जोखिम में नहीं डाल सकते। भगवान ही इनकी मदद करेगा।"
गोमती का हृदय यह दृश्य देखकर द्रवित हो गया। उसने सोचा, "अगर भगवान इन्हें बचाने आएंगे, तो फिर मानव होने का क्या अर्थ है? शायद, भगवान ने मुझे यहां इसी उद्देश्य से भेजा है।"
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गोमती का सेवा कार्य
गोमती ने अपनी तीर्थ यात्रा को स्थगित कर दिया। वह गांव में रुकी और बीमार लोगों की सेवा में लग गई। उसने अपने पास जो भी खाना था, वह उन्हें खिलाया। जो लोग पानी के लिए तरस रहे थे, उन्हें पानी पिलाया। अपनी सारी जमा पूंजी दवाओं और जरूरतमंदों पर खर्च कर दी।
गोमती (बीमार व्यक्ति से): "घबराओ मत, मैं तुम्हारे पास हूं। तुम्हें कुछ नहीं होगा। भगवान पर भरोसा रखो।"
बीमार व्यक्ति: "माई, तुम कौन हो जो हमारी मदद कर रही हो? हमारे अपने तो हमें छोड़कर चले गए।"
गोमती: "मैं कोई नहीं हूं। बस एक इंसान हूं। अगर मैं तुम्हारी मदद नहीं करूंगी, तो भगवान मुझसे भी नाराज हो जाएंगे।"
धीरे-धीरे, गोमती की सेवा भावना ने गांव के कुछ और लोगों को प्रेरित किया। वे भी उसके साथ जुड़ गए और बीमारों की सेवा में मदद करने लगे।
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अंतिम बोध
कई दिनों तक बीमारों की सेवा करते-करते गोमती थक चुकी थी। एक दिन उसने सोचा, "मैं तो तीर्थ यात्रा के लिए निकली थी। लेकिन क्या यह सेवा कार्य ही मेरा सच्चा तीर्थ नहीं है?"
उसने महसूस किया कि तीर्थ का महत्व केवल गंगा में स्नान करने से नहीं, बल्कि दूसरों के कष्ट दूर करने से है। यही असली पुण्य है।
गोमती (स्वयं से): "भगवान ने मुझे रास्ता दिखा दिया। सच्चा तीर्थ वहीं है, जहां मानवता की सेवा हो।"
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कहानी का संदेश
मुंशी प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से दिखाया है कि धार्मिक आडंबरों और तीर्थ यात्राओं की तुलना में दूसरों की मदद करना अधिक पुण्य का कार्य है। गोमती, जो खुद एक गरीब विधवा थी, अपने सारे कष्ट भूलकर मानवता की सेवा में लगी रही।
कहानी यह सिखाती है कि असली धर्म और मोक्ष मानवता के कल्याण में है। धर्म का उद्देश्य केवल पूजा-पाठ या तीर्थ यात्रा करना नहीं, बल्कि दूसरों के जीवन में सुख लाना है।
निष्कर्ष
"महा तीर्थ" प्रेमचंद की अन्य कहानियों की तरह सामाजिक और नैतिक मूल्यों पर आधारित है। गोमती का चरित्र सच्ची मानवता और निःस्वार्थ सेवा का प्रतीक है। कहानी का संदेश आज भी प्रासंगिक है और हमें अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक करता है।
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