“गले न उतरना” मुहावरे का अर्थ और वाक्य प्रयोग / Gale Na Utarna Meaning In Hindi

Gale Na Utarna Muhavare Ka Arth Aur Vakya Prayog / गले न उतरना मुहावरे का क्या मतलब होता है? मुहावरा- “गले न उतरना”। (Muhavara- Gale Na Utarna) अर्थ- स्वीकार्य न होना / किसी बात का विश्वास न होना / बात न जचना । (Arth/Meaning in Hindi- Svikarya Na Hona / Kisi Ka Vishvas Na Hona / Bat Na Jachna) “गले न उतरना” मुहावरे का अर्थ/व्याख्या इस प्रकार है- “गले न उतरना” हिंदी भाषा का एक प्रचलित मुहावरा है, जिसका उपयोग तब किया जाता है जब कोई बात मन को स्वीकार्य न हो, तर्क के आधार पर समझ में न आए, या उस पर विश्वास करना कठिन हो जाए। सरल शब्दों में, यह मुहावरा उस स्थिति को व्यक्त करता है जब किसी व्यक्ति द्वारा कही या प्रस्तुत की गई बात दूसरों को सच्ची, उचित या तर्कसंगत नहीं लगती। शाब्दिक अर्थ: शाब्दिक रूप से “गले न उतरना” का अर्थ है, कोई वस्तु या चीज़ आसानी से निगली न जा सके। लेकिन मुहावरों में शब्दों का अर्थ शाब्दिक न होकर भावार्थ के आधार पर लिया जाता है। इसलिए यहाँ “गले न उतरना” से तात्पर्य है बात का मन में न समाना, अर्थात् विचार, घटना या सूचना का स्वीकार्य न होना। भावार्थ: जब कोई बात अस्वाभाविक, अ...

“शुद्रा” मुंशी प्रेमचंद की कहानी / Shudra Hindi Story By Munshi Premchand


Munshi Premchand Ki Kahani Shudra / मुंशी प्रेमचंद की हिंदी कहानी “शुद्रा” ।


 

“शुद्रा” मुंशी प्रेमचंद की कहानी / Shudra Hindi Story By Munshi Premchand
Hindi Story- Shudra



कहानी का सारांश :


मुंशी प्रेमचंद की कहानी "शुद्रा" समाज में जातिवाद और छुआछूत की समस्या को उजागर करती है। इस कहानी में एक शूद्र बालक की पीड़ा और संघर्ष को दिखाया गया है, जो अपने समाज में उपेक्षा, तिरस्कार और अन्याय का शिकार होता है। बालक को शिक्षा पाने की आकांक्षा होती है, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण उसे स्कूल में प्रवेश नहीं मिल पाता। समाज के ऊँचे वर्ग के लोग उसकी पढ़ाई-लिखाई में बाधाएँ डालते हैं और उसे अपमानित करते हैं।


इस कहानी में प्रेमचंद ने यह दिखाने का प्रयास किया है कि कैसे जातिवाद न केवल व्यक्ति के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाता है, बल्कि उसकी प्रगति में भी बाधा बनता है। लेखक ने समाज के इस अमानवीय और अन्यायपूर्ण रवैये की आलोचना करते हुए यह संदेश दिया है कि जाति-धर्म के भेदभाव को समाप्त करके ही सच्ची समानता प्राप्त की जा सकती है।



कहानी का आरंभ :


शूद्रा की शुरुआत एक गाँव में होती है जहाँ एक शूद्र जाति का बालक अपने परिवार के साथ रहता है। वह बालक अपने घर की स्थिति से परिचित है और जानता है कि समाज में उसकी जाति को बहुत निम्न दृष्टि से देखा जाता है। इसके बावजूद उसमें पढ़ने की इच्छा है, क्योंकि उसे लगता है कि शिक्षा से उसका जीवन सुधर सकता है और उसे समाज में सम्मान मिल सकता है। उसकी माँ उसे प्रोत्साहित करती है और कहती है कि शिक्षा ही एक ऐसा साधन है जो उसे एक बेहतर जीवन दे सकती है।


बालक का विद्यालय में प्रवेश :


जब वह बालक पहली बार गाँव के विद्यालय में प्रवेश करता है, तो वहाँ उसे भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ऊँची जाति के छात्र उसे अपने साथ बैठने नहीं देते और उसे घृणा से देखते हैं। शिक्षक भी उसके प्रति उपेक्षा दिखाते हैं और उसे पढ़ाई में शामिल करने के बजाय विद्यालय के छोटे-मोटे काम करने में लगा देते हैं। विद्यालय के सभी लोग उसे अलग-थलग रखते हैं, मानो वह किसी दूसरी श्रेणी का व्यक्ति हो।


जातिगत भेदभाव


यहाँ कहानी जातिगत भेदभाव का एक स्पष्ट चित्रण प्रस्तुत करती है। एक बालक, जो केवल पढ़ाई करने के लिए विद्यालय गया है, को उसकी जाति के कारण पढ़ाई से दूर रखा जाता है। यह दर्शाता है कि किस प्रकार समाज में जातिवाद ने शिक्षा जैसे मौलिक अधिकार को भी प्रभावित किया है।


बालक का संघर्ष


बालक शिक्षा प्राप्त करने के लिए लगातार संघर्ष करता है। वह अपमानित होकर भी विद्यालय जाता है, लेकिन वहाँ भी उसे पढ़ने का अधिकार नहीं मिलता। उसे विद्यालय के दूसरे कार्य जैसे सफाई करना, पानी लाना, आदि में ही लगाया जाता है। एक बार वह शिक्षक के प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करता है, तो शिक्षक उसे डाँटते हैं और अपमानित करते हैं। बालक को एहसास होता है कि समाज में उसकी जाति को लेकर कितनी गहरी नफरत और भेदभाव है।


शिक्षा का महत्व और संघर्ष


इस बिंदु पर कहानी यह संदेश देती है कि शिक्षा हर किसी का अधिकार है। लेकिन जातिवादी समाज ने इसे केवल ऊँची जातियों के लिए सीमित कर दिया है। बालक का संघर्ष दिखाता है कि वह इस व्यवस्था को तोड़ना चाहता है, लेकिन अकेले होने के कारण उसे बार-बार निराशा मिलती है।


बालक की हिम्मत और आत्मसम्मान


बालक अपने अपमान और संघर्ष के बावजूद हार नहीं मानता। उसके मन में यह विश्वास है कि अगर उसे समाज में सम्मान पाना है, तो उसे शिक्षित होना होगा। इसके लिए वह हर कठिनाई सहने को तैयार रहता है। कहानी में यह दिखाया गया है कि बालक में आत्मसम्मान है, और वह समाज द्वारा उसे दी गई इस निचली पहचान को बदलना चाहता है। लेकिन वह समझता है कि यह कार्य बहुत कठिन है और समाज की जंजीरों को तोड़ पाना अकेले के लिए आसान नहीं है।


आत्मसम्मान और समाज का दृष्टिकोण


कहानी में प्रेमचंद ने यह दर्शाया है कि किसी व्यक्ति के आत्मसम्मान और उसकी गरिमा को कैसे समाज ने जाति के आधार पर बांध रखा है। बालक का आत्मसम्मान उसके संघर्ष का मूल कारण है, जो उसे आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।


कहानी का अंत और संदेश


कहानी का अंत मार्मिक है। बालक अपने संघर्षों के बावजूद शिक्षा प्राप्त करने में सफल नहीं हो पाता, क्योंकि समाज की संकीर्ण मानसिकता उसके रास्ते में बाधा बन जाती है। उसे यह महसूस होता है कि जब तक समाज की सोच में बदलाव नहीं आता, तब तक उसकी तरह के लोगों के लिए सम्मान और शिक्षा की बातें केवल एक सपना ही रहेंगी।


सामाजिक सुधार का संदेश


प्रेमचंद की इस कहानी का मुख्य संदेश यही है कि समाज में बदलाव लाना आवश्यक है। जब तक समाज में जातिवाद और छुआछूत जैसे भेदभाव बने रहेंगे, तब तक कोई भी प्रगति या समानता प्राप्त नहीं हो सकती। समाज को हर इंसान के प्रति समानता का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, तभी सही मायनों में समाज का विकास संभव है।


निष्कर्ष


शूद्रा कहानी में प्रेमचंद ने जातिवाद और छुआछूत की जड़ें हमारे समाज में कितनी गहरी हैं, इसे बड़ी सजीवता से दर्शाया है। बालक की संघर्षपूर्ण यात्रा उसके साहस, आत्मसम्मान, और शिक्षा के प्रति उसकी लगन को प्रदर्शित करती है। लेकिन अंत में, यह भी दिखाती है कि जातिगत भेदभाव ने एक इंसान के जीवन के सपनों को कैसे चूर-चूर कर दिया है।



शुद्रा कहानी की पुनरावृति: 


मुंशी प्रेमचंद की कहानी "शूद्रा" भारतीय समाज में प्रचलित जातिवाद, छुआछूत, और सामाजिक असमानता की वास्तविकता को प्रस्तुत करती है। इस कहानी का मुख्य उद्देश्य समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को उजागर करना और इसके कारण उत्पन्न सामाजिक, आर्थिक, और भावनात्मक समस्याओं को सामने लाना है। प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से उन लोगों की दशा को दिखाने का प्रयास किया है, जो निम्न जाति में जन्म लेने के कारण शिक्षा, सम्मान और अन्य मानवाधिकारों से वंचित रहते हैं।


कहानी का सार


कहानी एक शूद्र परिवार के लड़के की है जो जातिगत भेदभाव और छुआछूत के चलते समाज में हमेशा अपमान और उपेक्षा का सामना करता है। वह बालक पढ़ाई करना चाहता है और एक विद्यालय में प्रवेश लेने का प्रयास करता है। लेकिन उसकी जाति के कारण समाज उसे शिक्षा के अधिकार से वंचित कर देता है। स्कूल में ऊँची जाति के बच्चे और शिक्षक उसे अपने साथ बैठने या पढ़ने नहीं देते, और बार-बार उसे अपमानित करते हैं। फिर भी, वह बालक शिक्षा प्राप्त करने की कोशिशों में लगा रहता है, क्योंकि उसे शिक्षा की महत्ता का भली-भाँति ज्ञान है।


प्रमुख घटनाएँ और संघर्ष


कहानी में जातिगत भेदभाव का मुख्य प्रतीक विद्यालय और उसमें उपस्थित लोग हैं। विद्यालय के अन्य बच्चे और शिक्षक उसे पढ़ाई से दूर रखने के लिए तरह-तरह के अत्याचार करते हैं। उदाहरण के लिए, उसके साथ मारपीट की जाती है, और उसे स्कूल के मैदान में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। यह बालक पढ़ाई के प्रति अपने उत्साह और समर्पण के बावजूद समाज की क्रूरता का शिकार बनता है।


प्रेमचंद ने इस कहानी में जातिवाद के कारण एक इंसान के साथ कैसा अमानवीय व्यवहार किया जाता है, उसे बहुत मार्मिक ढंग से चित्रित किया है। कहानी में वर्णित घटनाएँ इस बात को दर्शाती हैं कि कैसे भारतीय समाज में शिक्षा का अधिकार केवल ऊँची जाति के लोगों तक सीमित था और निम्न जाति के लोगों के लिए शिक्षा प्राप्त करना एक स्वप्न जैसा था।


लेखक का उद्देश्य और संदेश


प्रेमचंद इस कहानी के माध्यम से समाज को यह समझाना चाहते हैं कि शिक्षा पर सभी का अधिकार है, चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग, या धर्म का हो। शिक्षा किसी भी जाति या वर्ग की संपत्ति नहीं होनी चाहिए। कहानी का मुख्य पात्र शिक्षा के प्रति लगनशील है, लेकिन समाज के तथाकथित ऊँची जाति के लोग उसे नीचा दिखाते हैं और उसकी शिक्षा में बाधाएँ डालते हैं। प्रेमचंद ने दिखाया है कि जातिवाद का यह विष समाज के हर क्षेत्र में फैला हुआ है और यह समाज के विकास में एक प्रमुख अवरोधक है।


कहानी के अंत में, प्रेमचंद यह संदेश देना चाहते हैं कि अगर जातिवाद और छुआछूत को समाप्त नहीं किया गया, तो समाज में कभी भी समानता नहीं आएगी। केवल कानून और नीतियाँ बदलने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी। प्रेमचंद की यह कहानी इस बात का आह्वान है कि समाज को सभी के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए, ताकि सबको बराबरी का अधिकार मिल सके।


निष्कर्ष


शूद्रा कहानी प्रेमचंद की अन्य कहानियों की तरह ही समाज को एक नई दिशा देने का प्रयास है। यह कहानी न केवल जातिवाद के खिलाफ है, बल्कि यह शिक्षा के महत्व और उसके सार्वभौमिक अधिकार पर भी जोर देती है। यह कहानी भारतीय समाज के जातिवादी ढाँचे पर एक गंभीर प्रहार करती है और यह बताती है कि अगर हमें एक विकसित और समतावादी समाज बनाना है, तो सबसे पहले जातिवाद और छुआछूत को समाप्त करना होगा।


प्रेमचंद ने "शूद्रा" कहानी के माध्यम से जो संदेश दिया है, वह आज भी प्रासंगिक है। समाज में समानता, भाईचारा और एकता तभी आ सकती है जब हम जात-पात के भेदभाव को पूरी तरह समाप्त कर दें।



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